Pad class 10 | surdas ke pad | सूरदास के पद

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 पाठ-1 

पद- सूरदास



ध्वनि प्रस्तुति



जीवन परिचय


माना जाता है कि सूरदास का जन्म १४७८ ई० में रुनकता क्षेत्र में हुआ। यह गाँव मथुरा-आगरा मार्ग के किनारे स्थित है। कुछ विद्वानों का मत है कि सूर का जन्म दिल्ली के पास सीही नामक स्थान पर एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। वह बहुत विद्वान थे, उनकी लोग आज भी चर्चा करते है। सूरदास के पिता, रामदास गायक थे। सूरदास के जन्मांध होने के विषय में मतभेद है। प्रारंभ में सूरदास आगरा के समीप गऊघाट पर रहते थे। वहीं उनकी भेंट श्री वल्लभाचार्य से हुई और वे उनके शिष्य बन गए। वल्लभाचार्य ने उनको पुष्टिमार्ग में दीक्षित कर के कृष्णलीला के पद गाने का आदेश दिया। सूरदास की मृत्यु गोवर्धन के निकट पारसौली ग्राम में 1584 ईस्वी में हुई।
                                                                                               
                                                                                                सूरदास की जन्मतिथि एवं जन्म स्थान के विषय में विद्वानों में मतभेद है। "साहित्य लहरी' सूर की लिखी रचना मानी जाती है। इसमें साहित्य लहरी के रचना-काल के सम्बन्ध में एक पद मिलता है. जिसके अनुसार उनका जन्म  1607 ईस्वी में माना गया है,  इस ग्रन्थ से यह भी प्रमाण मिलता है कि सूर के गुरु श्री वल्लभाचार्य थे।


                                                                                                                      सूरदास का जन्म सं० 1540 ईस्वी के लगभग ठहरता है, क्योंकि बल्लभ सम्प्रदाय में ऐसी मान्यता है कि बल्लभाचार्य सूरदास से दस दिन बड़े थे और बल्लभाचार्य का जन्म उक्त संवत् की वैशाख् कृष्ण एकादशी को हुआ था। इसलिए सूरदास की जन्म-तिथि वैशाख शुक्ला पंचमी, संवत् 1535 वि० समीचीन जान पड़ती है। अनेक प्रमाणों के आधार पर उनका मृत्यु संवत् 1620 से 1648 ईस्वी के मध्य स्वीकार किया जाता है। रामचन्द्र शुक्ल जी के मतानुसार सूरदास का जन्म संवत् 1540 वि० के सन्निकट और मृत्यु संवत् 1620 ईस्वी के आसपास माना जाता है।

                                           सूरदास की आयु "सूरसारावली' के अनुसार उस समय 67 वर्ष थी। 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' के आधार पर उनका जन्म रुनकता अथवा रेणु का क्षेत्र (वर्तमान जिला आगरान्तर्गत) में हुआ था। मथुरा और आगरा के बीच गऊघाट पर ये निवास करते थे। बल्लभाचार्य से इनकी भेंट वहीं पर हुई थी। "भावप्रकाश' में सूर का जन्म स्थान सीही नामक ग्राम बताया गया है। वे सारस्वत ब्राह्मण थे और जन्म के अंधे थे। "आइने अकबरी' में (संवत् 1653 ईस्वी) तथा "मुतखबुत-तवारीख" के अनुसार सूरदास को अकबर के दरबारी संगीतज्ञों में माना है।


रचनाएँ

सूरदास जी द्वारा लिखित पाँच ग्रन्थ बताए जाते हैं:

(1) सूरसागर - जो सूरदास की प्रसिद्ध रचना है।
(2) सूरसारावली
(3) साहित्य-लहरी - जिसमें उनके कूट पद संकलित हैं।
(4) नल-दमयन्ती
(5) ब्याहलो

सूरदास जी ने श्री कृष्ण संबंधित सवा लाख पदों की रचना की जिनका आधार भागवत कथा थी . इन रचनाओं में सूरसागर सर्वाधिक प्रसिद्ध है जिसमें श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन है |


नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हस्तलिखित पुस्तकों की विवरण तालिका में सूरदास के 16 ग्रंथों का उल्लेख है। इनमें सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य लहरी, नल-दमयन्ती, ब्याहलो के अतिरिक्त दशमस्कंध टीका, नागलीला, भागवत्, गोवर्धन लीला, सूरपचीसी, सूरसागर सार, प्राणप्यारी, आदि ग्रंथ सम्मिलित हैं। इनमें प्रारम्भ के तीन ग्रंथ ही महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं, साहित्य लहरी की प्राप्त प्रति में बहुत प्रक्षिप्तांश जुड़े हुए हैं।





सूरदास की काव्यगत विशेषताएँ


1. सूरदास के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के अनुग्रह से मनुष्य को सद्गति मिल सकती है। अटल भक्ति कर्मभेद, जातिभेद, ज्ञान, योग से श्रेष्ठ है।

2. सूर ने वात्सल्य, श्रृंगार और शांत रसों को मुख्य रूप से अपनाया है। सूर ने अपनी कल्पना और प्रतिभा के सहारे कृष्ण के बाल्य-रूप का अति सुंदर, सरस, सजीव और मनोवैज्ञानिक वर्णन किया है। बालकों की चपलता, स्पर्धा, अभिलाषा, आकांक्षा का वर्णन करने में विश्व व्यापी बाल-स्वरूप का चित्रण किया है। बाल-कृष्ण की एक-एक चेष्टा के चित्रण में कवि ने कमाल की होशियारी एवं सूक्ष्म निरीक्षण का परिचय दिया है़-मैया कबहिं बढैगी चौटी?किती बार मोहिं दूध पियत भई, यह अजहूँ है छोटी।
सूर के कृष्ण प्रेम और माधुर्य प्रतिमूर्ति है। जिसकी अभिव्यक्ति बड़ी ही स्वाभाविक और सजीव रूप में हुई है।

3. जो कोमलकांत पदावली, भावानुकूल शब्द-चयन, सार्थक अलंकार-योजना, धारावाही प्रवाह, संगीतात्मकता एवं सजीवता सूर की भाषा में है, उसे देखकर तो यही कहना पड़ता है कि सूर ने ही सर्व प्रथम ब्रजभाषा को साहित्यिक रूप दिया है।

4. सूर ने भक्ति के साथ श्रृंगार को जोड़कर उसके संयोग-वियोग पक्षों का जैसा वर्णन किया है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है।

5. सूर ने विनय के पद भी रचे हैं, जिसमें उनकी दास्य-भावना कहीं-कहीं तुलसीदास से आगे बढ़ जाती है-

हमारे प्रभु औगुन चित न धरौ।
समदरसी है मान तुम्हारौ, सोई पार करौ।

6. सूर ने स्थान-स्थान पर कूट पद भी लिखे हैं।

7. प्रेम के स्वच्छ और मार्जित रूप का चित्रण भारतीय साहित्य में किसी और कवि ने नहीं किया है यह सूरदास की अपनी विशेषता है। वियोग के समय राधिका का जो चित्र सूरदास ने चित्रित किया है, वह इस प्रेम के योग्य है

8. सूर ने यशोदा आदि के शील, गुण आदि का सुंदर चित्रण किया है।

9. सूर का भ्रमरगीत वियोग-शृंगार का ही उत्कृष्ट ग्रंथ नहीं है, उसमें सगुण और निर्गुण का भी विवेचन हुआ है। इसमें विशेषकर उद्धव-गोपी संवादों में हास्य-व्यंग्य के अच्छे छींटें भी मिलते हैं।

10. सूर काव्य में प्रकृति-सौंदर्य का सूक्ष्म और सजीव वर्णन मिलता है।

11. सूर की कविता में पुराने आख्यानों और कथनों का उल्लेख बहुत स्थानों में मिलता है।

12. सूर के गेय पदों में ह्रृदयस्थ भावों की बड़ी सुंदर व्यजना हुई है। उनके कृष्ण-लीला संबंधी पदों में सूर के भक्त और कवि ह्रृदय की सुंदर झाँकी मिलती है।

13. सूर का काव्य भाव-पक्ष की दृष्टि से ही महान नहीं है, कला-पक्ष की दृष्टि से भी वह उतना ही महत्वपूर्ण है। सूर की भाषा सरल, स्वाभाविक तथा वाग्वैदिग्धपूर्ण है। अलंकार-योजना की दृष्टि से भी उनका कला-पक्ष सबल है।


आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने सूर की कवित्व-शक्ति के बारे में लिखा है-

सूरदास जब अपने प्रिय विषय का वर्णन शुरू करते हैं तो मानो अलंकार-शास्त्र हाथ जोड़कर उनके पीछे-पीछे दौड़ा करता है। उपमाओं की बाढ़ आ जाती है, रूपकों की वर्षा होने लगती है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि सूरदास हिंदी साहित्य के महाकवि हैं, क्योंकि उन्होंने न केवल भाव और भाषा की दृष्टि से साहित्य को सुसज्जित किया, वरन् कृष्ण-काव्य की विशिष्ट परंपरा को भी जन्म दिया।



पाठ का सार


सूरदास के काव्य सूरसागर में संकलित भ्रमरगीत में गोपियों की विरह पीड़ा को चित्रित किया गया है .प्रेम सन्देश के बदले श्री कृष्ण के योग संदेश लाने वाले उद्धव पर गोपियों ने व्यंगय-बाण (कटाक्ष करना) छोड़े हैं . व्यंग्य-बाणों में गोपियों की हृदय स्पर्शी उलाहना है. साथ ही श्री कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम प्रकट हो रहा है .इस प्रकार इन पदों में श्री कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम और विरह पीड़ा का चित्रण है.



पहले पद में बताया गया है कि यदि उद्धव प्रेम के धागे में बंधे होते तो विरह की पीड़ा को अवश्य समझ सकते. उद्धव कितने भाग्यशाली हैं जो श्रीकृष्ण के समीप रहते हुए भी प्रेम बंधन में नहीं बंध सके . वे कमल पत्र और तेल युक्त घड़े की तरह ही रहे जिन पर पानी ठहरता ही नहीं है .उन्होंने प्रेम-नदी में अपना पैर तक नहीं डुबाया. गोपियाँ ही ऐसी भोली अबला हैं जो न जाने क्यों प्रेम के बंधन में वैसे ही बंधती चली गईं जैसे गुड़ में चीटियां चिपकती चली जाती हैं .



दूसरे पद में गोपियों ने श्री कृष्ण के प्रति अपने प्रेम की गहराई को अभिव्यक्त किया है. गोपियां कहती हैं कि मन की अभिलाषा मन में ही रह गई . वे मन मसोसकर रह जाती हैं .श्री कृष्ण के आने की प्रतीक्षा में हम व्यथा को सहन कर रही थीं अब उनके द्वारा भेजे गए योग-साधना के संदेश ने हमारी पीड़ा को और बढ़ा दिया है ऐसी दशा में कैसे धैर्य धारण किया जा सकता है?




तीसरे पद में  गोपियों ने योग साधना के संदेश को कड़वी ककड़ी के समान बताकर श्री कृष्ण के प्रति अपने एकनिष्ठ प्रेम में दृढ़ विश्वास प्रकट किया है . गोपियां हारिल की लकड़ी की तरह श्री कृष्ण को छोड़ने में अपने आप को असमर्थ बताती हैं .वे कहती हैं कि श्रीकृष्ण के बिना जिया नहीं जा सकता. योग साधना का यह संदेश कड़वी कड़ी जैसा प्रतीत होता है . योग ऐसा रोग है जिसे हमने न कभी देखा, न सुना और न ही भोगा है .

गोपियों के अनुसार योग की बातें उन्हीं के लिए उचित होती हैं जिनका मन चाकरी के समान चंचल होता है अर्थात इधर-उधर भटकता रहता है.



चौथे पद में गोपियां उलाहना देती हैं कि श्री कृष्ण तो पहले से ही चतुर और योग्य थे उस पर भी अब राजनीति का पाठ पढ़ लिया है. इस विषय में गुरु (कृष्ण )से पढ़ कर आए उद्धव और चतुर हो गए हैं . गोपियाँ सचेत होकर राजधर्म को याद कराती हुई कहती हैं कि पहले लोग राजनीति में रहकर प्रजा का हित करते थे अब तो वे स्वयं ही अन्याय करने लगे हैं .राज धर्म के अनुसार प्रजा को सताना नहीं चाहिए.





पद का अर्थ एवं अर्थ ग्रहण संबंधी प्रश्न


1.

ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी।
अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी।
पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी।
ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी।
प्रीति-नदी मैं पाउँ न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी।
‘सूरदास’ अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी।



शब्दार्थ

  • बड़भागी -भाग्यवान
  • अपरस -अलिप्त,अनछुए
  • तगा-धागा, बंधन
  • अनुरागी- प्रेम में लिप्त
  • पुरइनि पात -कमल पत्र
  • दागी -दाग ,धब्बे
  • प्रीति नदी- प्रेम की नदी
  • बोर्यौ -डुबोया
  • परागी -मुग्ध होना
  • अबला -नारी ,
  • भोरी -भोली-भाली ,
  • गुर चांटी ज्यौं पागी - गुड़ से चिपकी हुई चीटियों की तरह


भावार्थ 

यहाँ गोपियाँ उद्धव से व्यंग्य करते हुए कहती हैं कि आश्चर्य है कि तुम श्री कृष्ण के निकट रहते हुए भी प्रेम बंधन में न बंध सके, तुम कैसे भाग्यशाली हो?

                                                                   गोपियाँ उद्धव से कहती हैं यह कैसी भाग्य की विडंबना है कि तुम श्री कृष्ण के निकट रहते हुए भी प्रेम बंधन से मुक्त रहे उनके प्रति अनुराग उत्पन्न नहीं हुआ. तुम श्री कृष्ण के समीप रहते हुए भी प्रेम से उसी प्रकार अलग रहे जिस प्रकार पानी में रहते हुए कमल-पत्र अलग ही रहता है. पानी की एक बूंद भी उस पर नहीं ठहरती . तेल युक्त मटकी को जल में डुबाने पर उसके ऊपर पानी की एक भी बूंद नहीं आ पाती उसी प्रकार तुम भी कृष्ण के अति निकट रहते हुए भी प्रेम से सदा रहित (विमुख) रहे. तुमने प्रेम नदी में आज तक अपना पैर डुबोया ही नहीं जो प्रेम के महत्व को जान पाते . तुम किसी के सौंदर्य पर मुग्ध ही नहीं हुए .तुम्हारी दृष्टि कृष्ण पर पड़ी ही नहीं . एक हम ही ऐसी भोली नारियाँ हैं जो श्रीकृष्ण के सौंदर्य में वैसे ही उलझ गई हैं ,जैसे चीटियाँ गुड़ के प्रति आसक्त होकर ऐसे चिपक जाती हैं कि फिर अलग होना ही नहीं चाहतीं .

                                                                                                            जिस प्रकार गुड़ से चिपकी हुई चीटियां चिपके-चिपके अपने प्राण त्याग देती हैं और उससे निकलने के प्रयास में भी अपने प्राण छोड़ देती हैं उसी तरह गोपियां भी कृष्ण के प्रेम में आसक्त होकर अपने प्राण गंवा देगीं और उनसे दूर होने पर तो प्राण जाना तय है.



अर्थ ग्रहण संबंधी प्रश्न



1- गोपियाँ उद्धव को बड़भागी क्यों कहती हैं?

उत्तर- गोपियाँ उद्धव को बड़े भाग्य वाली (सौभाग्यशाली) इसीलिए कहते हैं क्योंकि उद्धव कृष्ण के पास रहकर भी उनके प्रेम से सरावोर नहीं हुए .गोपियों ने श्री कृष्ण से प्रेम किया था अब उन्हें श्री कृष्ण की विरह-अग्नि में जलना पड़ रहा है इसके विपरीत उद्धव किसी के प्रेम बंधन में नहीं बंधे. इससे उन्हें विरह वेदना नहीं झेलनी पड़ी . इस कारण गोपियों ने उन्हें बड़भागी कहा है. यहाँ बड़भागी कहना एक प्रकार से ताना मारना ही है क्योंकि गोपियाँ उद्धव को एहसास दिलाना चाहती हैं कि तुम प्रेम के मूल्य को नहीं पहचाने.



2- ‘पुरइनि पात’ और ‘तेल की गागर’ का उदाहरण किस संदर्भ में दिया गया है, और क्यों ?

उत्तर- ‘पुरइनि पात’ और ‘तेल की गागर’ का उदाहरण उद्धव की प्रेम संबंधी अनासक्ति (अनाकर्षण ) भाव के संदर्भ में दिया गया है. इसका कारण यह है कि जिस प्रकार कमल के पत्ते तथा तेल लगी गागर (मटकी) पर पानी अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाता है उसी प्रकार श्री कृष्ण के अत्यंत समीप रहते हुए भी उद्धव उनके प्रेम से वंचित रहे और उनके प्रति अनासक्त रहे.

कमल के पत्तों के ऊपर एक मोम की परत चढ़ी होती है जिस कारण वे पानी में रहकर भी पानी से नहीं भीगते हैं. उसी प्रकार उद्धव के मन पर भी योग की परत चढ़ी हुई है जिस कारण वे कृष्ण के प्रेम से नहीं भीगे.

तेल से सना हुआ मटका अपने ऊपर पानी की बूंदे नहीं पड़ने देता है उसी प्रकार उद्धव अपनी योग साधना से सने होने के कारण कृष्ण के प्रेम की बौछार से वंचित ही रह गए.



3- गोपियों ने अपनी तुलना किससे की है और क्यों?

उत्तर- गोपियों ने अपनी तुलना गुड़ (मीठा) से चिपकी चीटियों से की है क्योंकि जिस प्रकार चीटियाँ गुड़ को नहीं छोड़ना चाहती हैं उसी प्रकार गोपियाँ श्री कृष्ण को नहीं छोड़ना चाहती हैं.

  • चीटियाँ -गोपियाँ
  • गुड़- श्री कृष्ण
  • चिपकना(चिपटना)- कृष्ण के प्रति प्रेम लगाव



2.

मन की मन ही माँझ रही।
कहिए जाइ कौन पै ऊधौ, नाहीं परत कही।
अवधि अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही।
अब इन जोग सँदेसनि सुनि-सुनि, बिरहिनि बिरह दही।
चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तैं, उत तैं धार बही।
‘सूरदास’ अब धीर धरहिं क्यौं, मरजादा न लही।



शब्दार्थ

  • अवधि- समय
  • आस - आशा
  • अधार- आधार
  • आवन- आगमन
  • बिथा - व्यथा,पीड़ा
  • विरह - वियोग( दूर होने का दुःख )
  • गुहारि - रक्षा के लिए पुकारना
  • जितहिं तैं - जहाँ से
  • उत तैं -उधर से
  • धार -योग की प्रबल धारा (प्रवाह)
  • धीर -धैर्य
  • धरहिं -धारण करें
  • मरजादा -मर्यादा, प्रतिष्ठा
  • न लही - न रही



भावार्थ 


गोपियाँ अपने प्रेम को श्री कृष्ण के समक्ष प्रकट न करने के कारण व्यथित ,दुखी होती हुई कहती हैं कि मन की अभिलाषाएँ (इच्छाएं ) मन में ही दब कर रह गईं हैं . अपने मन की व्यथा किसे जाकर कहें . वे प्रेम-पीड़ा को दूसरों के सामने प्रकट भी तो नहीं कर सकतीं . वे मन में श्री कृष्ण के लौटने की आशा संजोए हुए उनके आने की अवधि को अपने जीने का आधार बनाकर तन-मन की व्यथा को सहन कर रहीं थीं किंतु अब उद्धव द्वारा योग संदेश सुनकर वह पीड़ा अचानक बढ़ गई है. वे विरह पीड़ा में जलती हुईं अपनी रक्षा के लिए जिस तरफ से आशा लगाए हुईं थीं उसी ओर से योग की धारा बहने लगी .उन्हें अपनी प्रेम  नदी सूखती हुई जान पड़ी . 

                                                                गोपियों को पूर्ण आशा थी कि एक दिन अवश्य ही श्रीकृष्ण आकर हमारी पीड़ा को शांत करेंगे लेकिन आशा के विपरीत उन्होंने योग का संदेश भेज दिया . अंत में गोपियां दुखी मन से उद्धव को उलाहना (ताना) देती हैं कि जिनके कारण हमने अपनी मर्यादाओं को छोड़ दिया था उन्होंने अपनी मर्यादा का पालन नहीं किया अब हम कैसे धैर्य धारण करें.

                                                                                                                  कृष्ण के प्रेम के वशीभूत होकर हमने अपनी लोक लाज की मर्यादाओं को त्याग दिया था आज उन्हीं कृष्ण ने अपनी मर्यादा का पालन नहीं किया और प्रेम का जवाब योग से देने की ओछी कोशिश की है.


अर्थ ग्रहण संबंधी प्रश्न


1- गोपियों की कौन सी बात उनके मन में रह गई?

उत्तर-गोपियाँ श्री कृष्ण से प्रेम करती थीं . कृष्ण के मथुरा चले जाने से उन्हें विरह वेदना झेलनी पड़ रही थी इसी विरह वेदना को भी श्रीकृष्ण से मिलकर सुनना-सुनाना चाहती थीं . अब वे श्रीकृष्ण को अपने मन की वेदना कैसे सुनाएं? यह बात उनके मन में ही रह गई.

गोपियां श्री कृष्ण से मिलकर अपने प्रेम-भाव को व्यक्त करना चाहती थीं और विरह वेदना को साझा करना चाहती थीं लेकिन उद्धव को भेजकरकृष्ण ने गोपियों की मन की बात उन्हें मन में ही रखने के लिए विवश कर दिया क्योंकि प्रेम भाव जिससे होता है उसी से जाहिर (बयाँ ) होता है .वह किसी तीसरे व्यक्ति को शामिल नहीं करता है.


2- योग संदेश का गोपियों पर क्या प्रभाव पड़ा? स्पष्ट कीजिए.

उत्तर- बिरह वियोग की ज्वाला में जलती गोपियों को विश्वास था कि उनके पास कृष्ण अवश्य आएंगे. वे श्रीकृष्ण से प्रेम के प्रतिदान ( प्रेम के बदले प्रेम) की आशा लगाए बैठी थीं . गोपियों को उद्धव द्वारा योग का संदेश प्राप्त हुआ इस योग संदेश को सुनकर गोपियों की विरह-अग्नि और अधिक धधक उठी.

बिरहा अग्नि को प्रेम की बौछार से ही शांत किया जा सकता है उस पर योग की बारिश का कोई प्रभाव नहीं होता है. यहां योग का संदेश गोपियों के लिए निरर्थक व खोखला है क्योंकि गोपियां सर से पांव तक कृष्ण के प्रेम में डूबी हुई हैं .उनसे बिछड़ने के कारण विरह में जल रही हैं


3- गोपियों के अनुसार श्रीकृष्ण ने किस मर्यादा का पालन नहीं किया?

उत्तर- गोपियाँ प्रेम के बदले प्रेम की अभिलाषा रखती थीं पर श्री कृष्ण ने प्रेम के बदले योग संदेश भेजकर प्रेम की मर्यादा का पालन किया. गोपियों की इच्छा थी कि लंबे समय से दूर रहने के बाद कृष्ण स्वयं उनसे मिलने आएं और विरह-अग्नि पर प्रेम की बारिश करें .



3.


हमारैं हरि हारिल की लकरी।
मन क्रम बचन नंद-नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी।
जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जक री।
सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी।
सु तौ ब्याधि हमकौ लै आए, देखी सुनी न करी।
यह तौ ‘सूर’ तिनहिं लै सौंपौ, जिनके मन चकरी।



शब्दार्थ

  • हारिल -एक ऐसा पक्षी जो अपने पैरों में सदैव एक लकड़ी लिए रहता है ,
  • लकरी -लकड़ी
  • नंद-नंदन -नंद के पुत्र श्री कृष्ण
  • दृढ़ करि -मजबूती से
  • पकरी-पकड़ी
  • निसि-रात
  • जकरी -रटती रहती है ,जकड़े रहती है,
  • करुई - कड़वी
  • सु-वह
  • व्याधि- रोग ,पीड़ा पहुंचाने वाले वस्तु
  • तिनहिं -उन्हें
  • चकरी -जिनका मन चक्र के समान घूमता रहता है, स्थिर नहीं रहता है



भावार्थ 



गोपियाँ उद्धव को संबोधित करते हुए कहती हैं कि श्री कृष्णा हमारे लिए हारिल पक्षी की लकड़ी की तरह है जिन्हें हम छोड़ नहीं सकते. जिस प्रकार पक्षी अपने पैरों में पकड़े हुए लकड़ी को किसी स्थिति में नहीं छोड़ता.

                 वह सोचता है कि इसी लकड़ी के सहारे से उड़ पा रहा है वैसे ही हम अपने श्रीकृष्ण को छोड़ने में असमर्थ हैं . हम अपने प्रिय कृष्ण को मन -कर्म -वचन से अपने हृदय में बसाए हुए हैं. हम सोते-जागते, स्वप्न में ,दिन में ,रात में ,सदैव श्रीकृष्ण की रट लगाए रहती हैं .तुम्हारे द्वारा दिया गया योग संदेश कड़वी ककड़ी की तरह प्रतीत होता है .जिसके प्रति किसी प्रकार की रुचि नहीं होती .

                                                                                                                               योग साधना तो हमारे लिए ऐसा रोग है जिसके बारे में न तो पहले कभी देखा ,न कभी सुना और न कभी भोग है .उद्धव योग साधना का संदेश तो उन्हें देना उचित है जिनका मन चकरी की तरह घूमता रहता है ,भटकता रहता है . हमारे लिए श्री कृष्ण अनन्य हैं .हमारा मन उनके प्रति दृढ़ है.




अर्थ ग्रहण संबंधी प्रश्न


1- गोपियाँ हारिल की लकरी किसे कहती हैं और क्यों?

उत्तर- गोपियाँ श्री कृष्ण को ही हारिल की लकरी कहती हैं इसका कारण यह है कि जिस प्रकार हरिल अपने पंजे में सदैव एक लकड़ी दबाए रहता है और उसी को आधार बनाकर उड़ता फिरता है उसी प्रकार गोपियां भी श्री कृष्ण के प्रेम को आधार मानकर जी रही हैं.

                             हरिल के पंजे से लकड़ी छूटने पर उसे लगता है कि वह नहीं उड़ पाएगा. उसी प्रकार गोपियाँ कृष्ण के बिना जीवन नहीं जी पाएगीं .


2-गोपियाँ योग को किसके समान बताती हैं और क्यों?

उत्तर-गोपियाँ योग को कड़वी ककड़ी और व्याधि ( पीड़ा पहुंचाने वाला रोग) के समान बताती हैं उन्हें कृष्ण के प्रेम के समक्ष योग की बातें कड़वी ककड़ी के समान अरुचिकर लगती हैं .वियोग को उस व्याधि के समान बताती हैं जिसके बारे में न उन्होंने कभी सुना है, न कभी देखा है और न कभी भोगा (उपयोग किया ) है


3- ‘जिनके मन चकरी’ का आशय स्पष्ट कीजिए.

उत्तर- ‘जिनके मन चकरी’ का आशय ऐसे लोगों से है जो अपने मन पर काबू नहीं रख पाते हैं .अपने प्रिय या आराध्य से एक निष्ठ प्रेम नहीं करते हैं. उनका मन चंचल तथा चकरी के सामान अस्थिर रहता है.
          योग में चक्र दर चक्र अपने मन को स्थिर करना पड़ता है अतः गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि जो व्यक्ति इन चक्रों के फेर में पड़ना चाहता है उसे जाकर योग का भाषण दो . हमारा मन तो कृष्ण के प्रेम में पहले से ही एकाग्र है .



4.


हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।
समुझी बात कहत मधुकर के, समाचार सब पाए।
इक अति चतुर हुते पहिलैं ही, अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए।
बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी, जोग-सँदेस पठाए।
ऊधौ भले लोग आगे के, पर हित डोलत धाए।
अब अपनै मन फेर पाइहैं, चलत जु हुते चुराए।
ते क्यौं अनीति करैं आपुन, जे और अनीति छुड़ाए।
राज धरम तौ यहै ‘सूर’, जो प्रजा न जाहिं सताए।





शब्दार्थ

  • मधुकर -भंवरा(भौंरा ),गोपियों द्वारा उद्धव को संबोधन
  • चतुर- योग्य
  • हुते - थे
  • पठाए- भेजे,
  • आगे के -पहले के ,
  • परहित -दूसरों की भलाई के लिए ,
  • डोलत धाए - घूमते फिरते थे ,
  • फेर- फिर
  • पाइहैं- प्राप्त कर लेंगे
  • अनीति -अन्याय
  • आपुन - स्वयं



भावार्थ 

गोपियाँ निसंकोच उद्धव से कहती हैं कि हे ! भ्रमर रूप उद्धव! अब तो श्रीकृष्ण ने राजनीति पढ़ ली है. आपके योग संदेश को सुनकर पहले ही समझ गईं थीं किंतु अब समाचार जानकर पूर्ण विश्वास हो गया कि श्रीकृष्ण राजनीति पढ़कर और चतुर हो गए हैं. हे!उद्धव आप पहले से ही चतुर थे उस पर भी आप अपने गुरु श्रीकृष्ण से राजनीति का पूरा ग्रन्थ पढ़ आए हैं .राजनीति का ही यह प्रभाव है कि बुद्धि चातुर्य में श्री कृष्ण इतने कुशल हो गए हैं कि योग का ही संदेश भेज दिया . हे! उद्धव पहले के लोग कितने भले थे जो दूसरों की भलाई के लिए भागे चले आते थे . 
                                                                             हम इतनी आशा तो कर ही सकती हैं कि हमारे मन जो श्रीकृष्ण ने जाते समय चुरा लिए थे उसे हम पुनः प्राप्त कर लें . आश्चर्य है कि जो श्रीकृष्ण दूसरों को अन्याय करने से रोकते रहे वे स्वयं अनीति के रास्ते पर चल पड़े . वे प्रेम के स्थान पर योग संदेश भेज कर हमारे ऊपर क्यों अन्याय कर रहे हैं .उनको राजधर्म भी नहीं भूलना चाहिए .राज धर्म के अनुसार राजा को न सता कर उसकी भलाई का ध्यान रखना चाहिए.




अर्थ ग्रहण संबंधी प्रश्न



1 - श्री कृष्ण ने राजनीति पढ़ ली है, ऐसा गोपियों ने कैसे जान लिया?

उत्तर- विरह व्यथा से पीड़ित गोपियों को लगा कि राजा बनने के बाद श्री कृष्ण का मन उसी तरह बदल गया है जैसे राजनीतिज्ञ (नेता)अवसर ( मौका) के अनुसार बदल जाता है .श्रीकृष्ण ने एक चतुर राजनीतिज्ञ के रूप में गोपियों के पास योग संदेश भिजवा दिया .



2 -पद में पुराने लोगों तथा उद्धव के बीच क्या विषमता बताई गई है?

उत्तर- पुराने लोगों का स्वभाव परोपकारी होता था वे दूसरों की भलाई के लिए भागते फिरते थे .इसके विपरीत उद्धव ने गोपियों की भलाई न करके श्री कृष्ण द्वारा दिए गए योग संदेशों को सुना कर उनकी बिरह-अग्नि को और भी बढ़ा दिया है.



3 - गोपियों के अनुसार सच्चा राज धर्म क्या है?

उत्तर- गोपियों के अनुसार सच्चा राजधर्म यह है कि रजा हर स्थिति में अपनी प्रजा के हित में कार्य करें. अपनी प्रजा के कष्टों का निवारण करें. यहाँ गोपियाँ कष्ट में है अतः कृष्ण का सच्चा धर्म यही है कि वह आकर गोपियों की व्यथा को दूर करें.




प्रश्न-अभ्यास पाठ्य पुस्तक से




प्रश्न- गोपियों द्वारा उद्धव को भाग्यवान कहने में क्या व्यंग्य निहित है?

उत्तर- गोपियाँ उद्धव पर व्यंग्य करती हैं कि तुम्हारे भाग्य की कैसी विडंबना है कि श्री कृष्ण के निकट रहते हुए भी तुम प्रेम से वंचित ( रहित ) रहे .श्री कृष्ण के निकट रहकर भी उनके प्रति अनुराग नहीं हुआ वह तुम जैसा ही भाग्यवान हो सकता है इस तरह गोपियाँ उनको भाग्यवान कहकर यही व्यंग्य करती हैं कि तुम से बढ़कर दुर्भाग्य और किसका हो सकता है.यहां गोपियाँ उद्धव की फूटी किस्मत के बारे में बता रही हैं कि कृष्ण रूपी प्रेम सरोवर के पास रहकर भी तुम्हारे ऊपर प्रेम की एक बूंद भी न गिरी. भाग्यशाली कहकर गोपियां उद्धव को ताना मार रही हैं.



प्रश्न- उद्धव के व्यवहार की तुलना किससे की गई है?

उत्तर- उद्धव के व्यवहार की तुलना पहले ऐसे कमल पत्र से की गई है जो पानी में रहते हुए भी पानी में भीगता नहीं है . उद्धव की दूसरी तुलना तेल से युक्त ऐसे घड़े से की गई है जो जल में होने पर भी पानी में नहीं भीगता .


प्रश्न- गोपियों ने किन-किन उदाहरणों के माध्यम से उद्धव को उलाहना दी है?

उत्तर- गोपियाँ उद्धव को निम्नलिखित उलाहना देकर उनको आहत करती हैं-

  • हम गोपियाँ तुम्हारी तरह उस कमल पत्र और तेल की मटकी नहीं है जो श्रीकृष्ण के पास रहकर भी उनके प्रेम से अछूती रह सकें .
  • हम तुम्हारी तरह निष्ठुर नहीं हैं जो समीप बहती हुई नदी का स्पर्श भी न कर सकें .
  • तुम्हारे योग संदेश हम गोपियों के लिए उपयुक्त नहीं हैं.
  • हमने कृष्ण को मन,वचन और कर्म से हारिल की लकड़ी की तरह पकड़ा है (मन में शामिल किया है ).
  • हमें योग संदेश कड़वी ककड़ी तथा व्याधि के समान प्रतीत हो रहा है.



प्रश्न- उद्धव द्वारा दिए गए योग सन्देश ने गोपियों की विरह-अग्नि में भी का काम कैसे किया ?

उत्तर- गोपियाँ श्री कृष्ण के चले जाने पर उनसे अपने मन की प्रेम भावना प्रकट न कर पाने के कारण विरह अग्नि में पहले से जल रही थीं . उन्हें आशा थी कि श्रीकृष्ण लौटकर आएंगे किंतु वे नहीं आए. जब उनका योग संदेश उद्धव के द्वारा प्राप्त हुआ तो उनकी वियोग की तड़प और तीव्रतर हो गई .इस तरह योग संदेश ने विरहाग्नि में घी का काम किया.



प्रश्न- ‘मरजादा न लही’ के माध्यम से कौनसी मर्यादा न रहने की बात की जा रही है ?

उत्तर-गोपियाँ कह रही हैं कि श्री कृष्ण के प्रति उनका प्रेम था और उन्हें पूर्ण विश्वास था कि उनके प्रेम की मर्यादा का निर्वाह कृष्ण की ओर से जरूर होगा लेकिन कृष्ण ने योग संदेश भेजकर स्पष्ट कर दिया कि वह अपने प्रेम की लाज नहीं बचा सके. श्री कृष्ण के लिए गोपियों ने अपनी सभी मर्यादाओं को तोड़ दिया लेकिन कृष्ण प्रेम की मर्यादा का पालन नहीं कर सके.



प्रश्न- कृष्ण के प्रति अपने अनन्य प्रेम को गोपियों ने किस प्रकार व्यक्त किया है?

उत्तर- गोपियों ने श्री कृष्ण को पति अपने अनन्य प्रेम को प्रकट करते हुए यह कहा है कि-

  • श्री कृष्ण के प्रति हमारा स्नेहबंधन गुड़ से चिपकी हुई चीटियों के समान है.कोई हमें अलग करने का प्रयास करेगा तो हम प्राण गंवा बैठेंगे.
  • श्री कृष्ण  हारिल की लकड़ी के समान उनके जीवन का आधार बने हुए हैं.
  • गोपियाँ मन- वचन -कर्म से कृष्ण के प्रति समर्पित हैं .
  • गोपियाँ सोते -जागते, दिन- रात कृष्ण का स्मरण करती हैं
  • गोपियों को योग संदेश कड़वी ककड़ी के समान लग रहा है. वे योग नहीं अपितु प्रेम की चाह रखती हैं .



प्रश्न- गोपियों ने उद्धव से योग की शिक्षा कैसे लोगों को देने की बात कही है?

उत्तर- गोपियों ने योग शिक्षा के बारे में उद्धव को सलाह देते हुए कहा है कि ऐसी शिक्षा उन लोगों को देना उचित है जिनका मन अस्थिर रहता है . हमारा मन तो पहले से ही कृष्ण के लिए एकाग्र है. किसी भी हालत में है उन से विमुख नहीं होता है. जिनका चित्त चंचल है उन्हें योग का पाठ सिखाओ .



प्रश्न- गोपियों की वाणी की चतुरता ( वाक् चातुर्य ) की विशेषताएं लिखिए.

उत्तर- गोपियों की वाक् पटुता उद्धव जैसे ज्ञानी को चुप रहने के लिए विवश कर देती है.गोपियाँ उद्धव पर कटाक्ष करती है लेकिन उद्धव क्रोधित नहीं होते हैं अपितु भीतर ही भीतर तिलमिला उठते हैं. गोपियाँ अपने तर्कों से उद्धव की ज्ञान से भरी वाणी को चकनाचूर कर देती हैं. उनकी वाणी की धारदार विशेषताएं निम्नलिखित हैं -

  • स्पष्टता- गोपियां अपनी बात को बिना घुमाए फिराए ( बिना लाग लपेट के ) स्पष्ट रूप से कह देती हैं. गोपी बिना संकोच के उद्धव के ज्ञान को कड़वी ककड़ी बता देती हैं .
  • व्यंग्यात्मकता- गोपियाँ व्यंग्य करने में कुशल हैं . वे उद्धव की फूटी किस्मत को सौभाग्य बताते हुए कहती हैं कि विष्णु के समीप रहकर तुम ज्ञान और आग से बचे रहें यह तुम्हारे ज्ञान की महिमा है. यह सुनकर उद्धव मन ही मन अपने ज्ञान पर घमंड कर रहे होंगे.
  • सहृदयता- गोपियाँ भावुक हैं. वे कृष्ण से अपनी प्रेम भावना प्रकट ही नहीं कर पाईं . गोपियाँ उद्धव को जो उलाहना देती हैं उनके तर्क भी सटीक रूप से देती चली जाती हैं. वह उद्धव को अपनी भाव भूमि पर लाकर घसीटती हैं .
  • तार्किकता- गोपियाँ जो भी कहती हैं वह सिद्ध करती चलती हैं . वे हवाई बातें नहीं करती हैं . वे उद्धव के योग को व्यवहारिक ज्ञान के उदाहरण देकर परास्त करती हैं.





रचना और अभिव्यक्ति 


1- गोपियों ने उद्धव के सामने तरह-तरह के तर्क दिए हैं .आप भी अपनी कल्पना से कुछ तर्क दीजिए .

उत्तर - गोपियों ने अपने भाव सामर्थ के अनुसार सटीक तर्क दिए. वे यह भी कह सकती थी कि योग का संदेश देना ही था तो तुम्हें क्यों भेजा ? कृष्ण स्वयं आ सकते थे. यदि उन्हें योग की बातें ही करनी थी तो फिर पहले क्यों प्रेम किया. हम तो मछली के समान हैं जो जल ( प्रेम ) में ही जी सकते हैं. योग हमारे लिए मछली पकड़ने वाले जाले के समान है.

                                                             हम गोपियाँ  तो इस संसार में रहकर व्यवहारिक बातें जानती हैं हमें योग- जोग की बातें पल्ले नहीं पड़ती. हम आँख खोलकर और आँख बंद करके केवल कृष्ण से प्रेम कर सकते हैं .योग के आसन लगाना हमारे बस की बात नहीं है.


2- उद्धव ज्ञानी थे,नीति की बातें जानते थे; गोपियों के पास ऐसी कौन सी शक्ति थी जो उनके वाक्चातुर्य में  मुखरित हो उठी?


उत्तर- उद्धव ज्ञानी थे उनमें व्यवहारिकता का अनुभव नहीं था और वे प्रेम से अछूते  थे. इसके विपरीत गोपियाँ व्यवहार कुशल और वाकपटु थीं . गोपियों के पास कृष्ण के प्रति प्रेम, लगाव और समर्पण की शक्ति थी. उनकी प्रेम में तीव्रता थी और सामर्थ्य था. उद्धव की ज्ञान से भरी हुई वाणी के प्रत्युत्तर में गोपियों ने प्रेम से पगी हुई अचूक बातें कहीं .इनका जवाब उद्धव के पास नहीं था.









जय हिन्द 
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